सुंदर लाल बहुगुणा का जाना यूं है जैसे हिमालय ने अपना आसरा खो दिया हो,साथ ही यह भी महसूस होता है कि वो एक ऐसी नदी की तरह सागर मे समा गए हैं जिसे अपनी यात्रा की पूर्णता मिल गई हो। हमारे समय के सबसे बुरे वक़्त में ये महामारी हमसे उनको भी छिन ले गई। अभी शायद कुछ वर्ष और उनका मार्गदर्शन हमको हमारी पीढ़ियों को और हमारे पहाड़ों को मिलता।
सुंदर लाल बहुगुणा का व्यक्तितव बहुत से रूपों मे हमेशा आकर्षित करता रहा है, एक विद्रोही,स्वतंत्रता सेनानी, सिद्ध पुरुष, गाँधीवादी,यायावर,पत्रकार, पर्यावरणविद, आंदोलनकारी और एक अभिभावक । लेकिन मुझे उनका जो रूप सबसे अधिक भाता रहा वो उनकी यायावरी का था। यह यात्राएं वैचारिक, सांसारिक और भौतिक हर तरह की रही हैं। एक छात्र से टिहरी साम्राज्य के विद्रोही होने की यात्रा, राजनीति से विमुख होकर समाजसेवी होने की यात्रा, एक जन से बहुजन तक जनआंदोलनों के नेतृत्व की यात्रा, और हिमालाई राज्यों में हजारों हजार किलोमीटर की उनकी सभी यात्राएं जो उन्होंने पैदल अकेले या अपने कुछ साथियों के साथ की।
शेखर पाठक लिखते हैं कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनकी नियति चलते रहना होती है। चाहे अकेले चाहे साथ में। कहीं पर भी ठहरना उनके लिए सम्भव नही होता है। यदि वे कहीं ठहरते भी हैं तो यह उनका ठहरना नही, निरंतर चलते रहने की प्रक्रिया का अंग होता है।
इन्हीं यात्राओं में आमजन से मिलते, अपने जल,जंगल और जमीन की टोह लेते हुए उभरे विचारों,सवालों और जिज्ञासाओं ने बहुत से आंदोलनों को जन्म दिया। इन यात्राओं का उद्देश्य हिमालय,उसकी पीड़ा, यहाँ के रहवासी, उनकी दुख दर्द समस्याएं और उनके समाधानों को खोजना रहा।
सुंदर लाल बहुगुणा ने अपने साथियों शमशेर सिंह बिष्ट, कुंवर प्रसून और प्रताप शेखर के साथ वर्ष 1974 में जीवन बदलने वाली अस्कोट-आराकोट यात्रा शुरू की, यह यात्रा तब से हमेशा हर दस साल में होती है।सुंदर लाल बहुगुणा ने सभी यात्रा साथियों से कहा था कि यात्रा के दौरान तुम बिना पैसों के रहोगे, पहाड़ में ऐसी कोई जगह नही है जहां तुम्हें पैसा न होने पर खाना न मिले। इस यात्रा ने चिपको आंदोलन को नई दिशा दी। यहीं बहुगुणा ने ग्रामीणों को शराबबंदी, ग्राम स्वराज, जातीय समानता, महिला शिक्षा और स्वावलंबन का महत्व बताते हुए अलग अलग अखबारों के माध्यम से भी ग्रामीणों की समस्याएं भी उजागर की।
1978 में हिमालय के ग्लेशियरों के हालातों को जानने और समझने के लिए सुंदरलाल बहुगुणा ने गोमुख तक की पैदल यात्रा करी । यहाँ उन्होंने गोमुख में ग्लेशियरों पिघलते हुए देखा जिसकी वजह से वो पीछे हटते नजर आते थे, यहीं उन्होंने भागीरथी के पानी को हाथ मे लेकर जल संरक्षण का संकल्प ले लिया। इतना ही नहीं, भविष्य में जल संकट के खतरों को भांपते हुए चावलों का भी त्याग कर दिया। तब से लेकर बहुगुणा ने जीवन में कभी भोजन में चावल का सेवन नहीं किया।
1981 से 1983 के दौरान, बहुगुणा ने कोहिमा से कश्मीर तक 5,000 किलोमीटर लंबी हिमालयी यात्रा की। उनका तर्क था कि हिमालय के ग्लेशियर खतरनाक दर से घट रहे हैं और यदि वनों का कटाव नहीं रोका गया, तो समय के साथ गंगा को खिलाने वाले ग्लेशियर गायब हो जाएंगे। और आज इतने सालों बाद उनकी हर बात सही साबित होती नजर आती है। इसी दौरान वर्ष 1981 में इन्हें पद्म श्री के लिये चयनित किया गया, लेकिन तब उन्होंने पेड़ों के कटान पर रोक लगाने की मांग को लेकर पद्म श्री लेने से इनकार कर दिया।इन सभी यात्राओं में कभी भी गांधी, सूत कातने की मशीन और किताबों ने उनका साथ नहीं छोड़ा।
21 मई 2021 को वो एक आखिरी बार ऐसी अनंत यात्रा पर निकल गए जिसका कोई ठौर ठिकाना नहीं, और ये आखिरी यात्रा लाखों पर्यावरण प्रेमियों को ऐसी छोटी बड़ी यात्राओं के लिए उत्साहित करते हुए एक प्रेरणा श्रोत का काम करेगी, जो सालों सालों तक सुंदर लाल बहुगुणा को अमर रखेंगे।